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Wednesday, July 30, 2014



Lord Shiva who is considered as the God of Destruction and as well as Creation is a classic example of symbolizing the study of nuclear physics and nuclear energy in a form that could be understood by common man.
To understand this, let us review some of the characteristics of Shiva.
• Shiva is called Bholenaath (the naïve one) who grants all the wishes of his disciples. He is often depicted as performing a special form of dance called the Tandav Nritya or the Cosmic Dance. Now let us now compare this to nuclear or atomic energy. This form of energy is one of the most efficient forms of energies which will, just like Bholenath, help resolve all the energy problems of the world, whether it is used to light up cities, power cars and automobiles or launch spaceships. This energy is always there at our disposal and could literally grant all our wishes.
• Now let us review the characteristics of Shiva Ling which is the symbol of Shiva. No other symbol or construction could come closer to the construction of a nuclear reactor than the Shiv Ling. The Shiva Ling is made up of 2 parts – a cylindrical structure made of smooth black stone and the grooves around the cylinder with a characteristic spout. A pot of water hangs over the cylinder which drips water on the cylinder at a continuous pace. This water flows out through the spout of the grooves circling the cylinder. Only in Shiva’s temple, this water is not consumed as tirtha (holy water) as also no one is allowed to cross the spout during the Pradakshina.
• Now let us examine how this structure to that of a nuclear reactor. The cylindrical structure exactly resembles the cylinder of a modern day nuclear reactor. The pot of water hanging above resembles the water needed to cool down the reactor as it heats up during the energy generation process. The grooves around the cylinder represent the structures built to dispose the polluted water from the reactor. This water is not consumed exactly for the same reason – it is polluted with radiations and nuclear waste.
This explanation would suffice to say that Shiva Ling is not just a symbol of some unknown, unseen god called Shiva, but a symbol of the nuclear reactor which generates the universally present nuclear energy called Shiva.

युद्ध का दर्शन विकसित करना चाहिए

दुर्भाग्य से हम अपने एक पड़ोसी देश, जो कल तक इस देश का ही एक अंग था, के साथ ऐसी स्थिति में जीने के लिए मजबूर हो गये हैं, जिसमें स्त्रायुतोड़क तनाव में जीना इस देश की नियति बन गया है। यह तनाव केवल भारत का ही नहीं है, पाकिस्तान भी इसमें पूरी तरह डूबा हुआ है। दोनों ही देशों के प्रबुद्ध नागरिकों की सद्इच्छाओं और सद्प्रयासों के बावजूद इस तनावपूर्ण स्थिति से मुक्ति का कोई उपाय नहीं दिखता। दोनों देशों की बिडम्बना यह है कि वे किसी क्षण आंखों में आंसू भरकर एक-दूसरे के गले लग जाते हैंऔर दूसरे क्षण आखें लाल कर, मुटि्ठयां भींचकर नथुनों से फुफकारते हुए एक-दूसरे पर झपट पड़ते हैं, प्रेम और घृणा का ऐसा ही खेल इस देश में कई हजार वर्ष पहले कौरवों और पाण्डवों के माध्यम से भी खेला गया था परिणाम, महाभारत जैसी त्रासदी थी। शांति की कितनी भी कामना क्यों न की जाए, युद्ध मनुष्य की नियति है। इसके बिना वह कभी जिया नहीं, न ही इसके बिना वह कभी जी सकेगा। पश्चिमी देशों में युद्ध के मनोविज्ञान पर बहुत काम हुआ है और वहां युद्ध के विभिन्न पहलुओं पर अनेक दृष्टियों और कोणों के आधार पर विचार किया गया है। हमारे देश में इस दृष्टि से विशेष चिंतन नहीं हुआ। जो थोड़ा-बहुत हुआ भी, वह गंभीर विचार या दर्शन के स्तर पर कभी नहीं उभरा। इस देश में भी बड़े-बड़े युद्ध हुए। महाभारत का युद्ध तो मनाव इतिहास की अद्वितीय घटना है। शायद उस युद्ध में हुए विनाश का व्याघात इतना प्रबल था कि इस देश की पूरी मानसिकता युद्ध-कर्म से केवल विरत ही नहीं हुई, उससे विरक्ति भी अनुभव करने लगी। हमारा संपूर्ण चिंतन आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, माया और सृष्टि की उत्पत्ति की गुत्थियों से सुलझाने की ओर मुड़ गया। यह चिंतन बढ़ते-बढ़ते इस स्थिति तक पहुंच गया, जहां सारा संसार और उसके सभी कार्य-कलाप मिथ्या दिखने लगे, केवल ब्रह्मा ही एक मात्र सत्य रह गया।
इस देश में सुगठित ढंग से युद्ध दर्शन का विकास न हो पाने का एक प्रमुख कारण यह है कि यहां जीवन-मृत्यु की सभी समस्याओं का अंतर्भेदन व्यक्ति मुखी हुआ, समाजमुखी नहीं। आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्रों के विविध आयामों पर चिंतन-मनन करते हुए इस देश में अनेक शास्त्रों की रचना हुई, किन्तु युद्ध-दर्शन पर कोई उल्लेखनीय शास्त्र नहीं रचा गया। युद्ध का अपना एक कौशल है। इससे आगे बढ़कर उसका एक पूरा दर्शन है। इस बात पर इस देश में गंभीर चिंतन नहीं हुआ। प्राचीनकाल से यहां चार पुरुषार्थों की चर्चा होती रही, जिन्हें पुरुषार्थ चतुष्ट कहा जाता है। ये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यदि ध्यान से देखा जाए तो ये चारों पुरुषार्थ व्यक्ति के निजी जीवन से ही अधिक संबंध रखते हैं, इनका पूरे समाज, पूरे देश, पूरे राष्ट्र के साथ संबंध होना आवश्यक नहीं हैं, किन्तु युद्ध एकाकी संक्रिया न होकर सामूहिक कर्म है। युद्ध कर्म पूरे समाज के साथ जुड़कर ही पूर्ण होता है। इस देश में धर्म पर बहुत कुछ सोचा और लिखा गया। मोझ की कामना से हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं। अर्थक और कुटिल राजनीति पर चाणाक्य जैसे मनीषियों ने बहुत कुछ लिखा। काम की तो यहां पूजा होती रही। हमारे अनेक मंदिरों में निर्मित मिथुन-मूर्तियां इस बात का प्रमाण हैं। ॠषि वात्सायन का ‘काम सूत्र’संसार की बेजोड़ रचना है, परंतु मुझे ऐसा कोई ग्रंथ याद नहीं आता जो युद्ध, युद्ध-कला और युद्ध दर्शन की व्यापकता को समाहित करता हो। इस देश की समाज-व्यवस्था में युद्ध धर्म, समाज के केवल एक वर्ग, क्षत्रियों, तक ही सीमित रह गया । पूरे समाज में यह वर्ग कभी दस प्रतिशत से अधिक नहीं था। नब्बे प्रतिशत जनता इससे विरत थी और इसे अपना काम नहीं मानती थी। क्षत्रिय वर्ग में परंपरा के रूप में शस्त्र-पूजा अवश्य होती थी, किन्तु उनके लिए भी यह मात्र एक रुढ़ी बनकर रह गई थी। संसार के विभिन्न भागों में किस प्रकार के नए अस्त्र-शस्त्र बन रहे हैं, इसके विषय में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी।
युद्ध एक पूरा दर्शन है, जीवन दृष्टि है, इस बात को संभवतः सबसे पहले गुरुगोविन्द सिंह ने, तीन सौ वर्ष पहले, आत्मसात किया था। उन्होंने अनुभव किया था कि कृपाण हाथ में लेकर युद्ध भूमि में जाकर शत्रु से भिड़ जाना ही पर्याप्त नहीं है। यह काम तो इस देश की क्षत्रिय जातियां सदियों से करती आ रही हैं। आवश्यकता यह थी कि युद्ध-कर्म को किस प्रकार लोगों की मानसिकता का हिस्सा बना दिया जाए, उनके लिए यह एक पूरा जीवन दर्शन बन जाए। सबसे बड़ी बात यह है कि इस कर्म में केवल दस प्रतिशत लोगों को नहीं, शत-प्रतिशत लोगों की भागीदारी कैसे प्राप्त की जाए।
गुरुगोविन्द सिंह ने इस कार्य को संपन्न करने के लिए व्यक्ति और समाज के उद्देश्य बदल दिये। ‘जब आव (आयु) की अवधि निदान बने अति ही रण में जूझ मरो’ का आदर्श लोगों के सामने रख दिया। ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं’ का निश्चय प्रकट किया। हरि, बनवारी, गोपाल, केशव, माधव बंशीधर, रण छोड़दास, रास बिहारी जैसे इष्टनामों के स्थान पर खड्गकेतु, असिपाणि, बाणपाणि, चक्रपाणि, दुष्टहंता, अरिदमन, सर्वकाल, महाकाल जैसे युद्ध-प्रकृति के नाम प्रचारित किये और इस दर्शन की पुष्टि आश्रय में रखे हुए कवियों से करवाई। उन्होंने लोगों के नाम बदल दिए। गुरुगोविन्द सिंह ने सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि उन्होंने पिछड़े हुए दलित, उपेक्षित, पीड़ित और कमजोर लोगों में ऐसा आत्मविश्वास उत्पन्न कर दिया कि कुछ समय बाद ही दुर्दान्त आक्रमणकारियों का मुकाबला करने, उन्हें पराजित करने और विश्व के सर्वश्रेष्ठ सैनिक होने का गौरव प्राप्त करने में सफल हो गए। युद्ध दर्शन का मूलमंत्र यह है कि इतने दुर्बल कभी न बनो कि किसी के मन में आपको लूटने और गुलाम बनाने का लोभ उत्पन्न हो जाए। गुरू तेगबहादुर की उक्ति है-’भय काहू को देति नहि, ना भय मानत आनि’ किसी को भयभीत करो, न ही किसी का भय मानो। इस कथन में किसी को भयभीत न करो, न किसी का भय मानो, जीतना किसी से भयभीत न होना है। दुर्बल व्यक्ति या राष्ट्र किसी को भयभीत कैसे करेगा। शक्तिशाली व्यक्ति या राष्ट्र ही, किसी का भय नहीं मानता, वहीं किसी को भयभीत न करने की समझ और सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है। भारत की राष्ट्रनीति शान्ति, अहिंसा और विश्व बंधत्व के आदर्श पर आग्रहशील रही है। ये महत्वपूर्ण मानवीय मूल्य हैं। हमारी अपेक्षा यही रही है कि संसार के सभी लोग, सभी राष्ट्र इन आदर्शों को अपनाएं और इन पर चलें,किन्तु इतिहास का अनुभव कुछ और ही प्रमाणित करता है। हम ऊंचे-ऊंचे आदर्शों की बातें करते रहे और सदियों तक बाहरी आक्रमणकारी आततायी बनकर हमें लूटते रहे, गुलाम बनाते रहे और हमारा शोषण करते रहे। पिछले वर्षों का इतिहास भी तो यही प्रमाणित करता है। यह देश पंचशील के आदर्श को सारे संसार के सम्मुख रखा और विश्व शांति की कामना की। अभी पंचशील के घोषणा पत्र की स्याही सूखी भी नहीं थी कि इस घोषणा पत्र के एक प्रमुख भागीदार चीन ने भारत की उत्तरी-पूर्वी सीमाओं को अपने सैन्य बल से रौंद दिया और हम बुरी तरह पिट गए।
जनता भी इस देश के साथ अपने अच्छे संबंध बनाना चाहती है, किन्तु दुर्भाग्य से इन दो देशों के मध्य कश्मीर की समस्या गले की ही हड्डी बन कर फंसी हुई है। राजनीतिक स्तर पर कूटनीतिक वार्ता द्वारा शायद इसका कोई समाधान निकल भी आता, किन्तु दोनों देशों की राजनीतिक स्थितियां ऐसी हैं कि सभी प्रयास सफलता की किसी मंजिल पर पहुंचने से पहले ही बिखर जाते हैं। भारत में, सभी संकटों के बावजूद लोकतंत्र बना रहा है, किन्तु पाकिस्तान में लोकतंत्र का कदम चलता है फिर लड़खड़ा कर सैनिक शासन की गोद में जा गिरा। सैनिक शासन की अपनी कुछ प्राथमिकताएं होती हैं और मजबूरियां भी। उसे सदैव यह अशंका बनी रहती है कि हल्का सा भी ‘साफ्ट’ रुख जनता में उसकी साख को बिगाड़ देगा। इसीलिए कठोर भाषा बोलना, आक्रमक तेवर बनाए रखना और कुछ न कुछ दुस्साहन प्रदर्शित करते रहना उसके लिए आवश्यक है। एक बिडम्बना यह भी है कि पाकिस्तान में जब भी लोकतंत्र आया, वह भी वहां की सेना की धौंस भय से कभी मुक्त नहीं हुआ। लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार भी सेना की ठकुरसुहाती करते रहने में ही अपनी खैरियत समझती रही है। यदि कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री सेना के प्रभाव को कम करना चाहता है तो सेना द्वारा तख्ता पलट की तलवार उसे भयभीत किए रखती है। आजकल तो वहां की सरकार तालिबानी उग्रवादियों की आतंकी घटनाओं से बुरी तरह संशकित है। एक बात और ध्यान में रखने की है, जो जनसमूह कबायली मानसिकता में पलता है वह अधिक दुर्दान्त और आक्रामक होता है। भारत की समृध्दि और उसकी शांति प्रियता, प्राचीनकाल से मध्य एशिया के विभिन्न कबीलों को इस देश पर आक्रमण करने, इसे लूटने, इस पर शासन करने के लिए लालायित करती रही। यूनानियों, हूणों और शकों के बाद अरबों, तुर्कों, पठानों, मुगलों के कबीले लगभग एक हजार वर्षाें तक इस देश में हमलावर बनकर आते रहे और इस देश की समृध्दि को तहस-नहस करते रहे। इन कबीलों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। ये कबीले इस्लाम धर्म स्वीकार न भी करते तो भी वही करते जो इन्होंने किया। चंगेज खां जैसा आक्रान्ता मुसलमान नहीं था। उसके वंशजों ने बाद में इस्लाम स्वीकार किया। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत के मुसलमान भी उतने ही पीड़ित हुए थे, जितने हिन्दू।
पाकिस्तान आज भी कबाइली मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त है। उत्तरी-पश्चिमी सरहदी सूबे के पठान कबाइली उसी परिवेश और मानसिकता में आज भी जी रहे हैं, जिसमें कई सौ वर्ष पहले जी रहे थे। इन्हें लड़ने-भिड़ने, युद्ध करने और अपनी कबाइली मानसिकता को तृप्त करने के लिए सदैव दुश्मन की जरूरत रहती है-वह चाहे अपने घर का हो या बाहर का। अफगानिस्तान के विभिन्न कबीले कितने ही वर्षो से आपस में लड़ रहे हैं और इस संघर्ष में लाखों लोगों की आहूति दे चुके हैं। पाकिस्तान के शासक यह अच्छी तरह जनते हैं कि यदि इन कबाइलियों का मुख किसी दूसरे देश की ओर न मोड़ा गया तो ये खुद पाकिस्तान के लिए बड़ी मुसीबत बन जाएंगे। यह निशाना भारत के अतिरिक्त दूसरा कौन सा देश हो सकता है? स्वतंत्रता प्राप्त होने के दो महीने बाद ही पाकिस्तानी शासकों ने इस कबाइलियों का मुंह कश्मीर की तरफ मोड़ दिया था। उस समय इन लोगोें ने कश्मीरियों पर जो जुल्म ढाये थे, उनकी यादें आज भी रोंगटे खड़े कर देती हैं। पिछली आधी सदी से पाकिस्तान कश्मीर में जो प्राक्सी वार लड़ रहा है। भारत का पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास कबाइलियों के हाथों त्रस्त होने का है। ये लोग अहिंसा, शांति, बंधुता, सद्भाव की भाषा नहीं सकझते। इनके संस्कार हिंसा और युद्ध को, इनकी मानसिकता का अविभाज्य अंग बना देते हैं। इसीलिए इनसे इसी भाषा में संवाद करना होता है। गुरुगोविन्द सिंह ने इस मानसिकता को इच्छी तरह समझा था। उनके युद्ध दर्शन की प्रेरक भूमिका यह मानसिकता ही थी। उन्होंने जो मंत्र दिया, उसके परिणामस्वरूप इतिहास की धारा ही बदल गई। हरि सिंह नलवा जैसे सेनानियों ने इन कबाइलियों की ऐसी गति बनाई कि वे अपने ही घर में पनाह मांगने लगे। नलवे की सेनाओं ने उन्हें दर्रा खैबर के उस ओर खंदेड़ दिया। इतिहास आज भी वैसे ही युद्ध दर्शन की अपेक्षा कर रहा है।
ध्वनी या लिपि की उत्पत्ति और चक्रों का रहस्य
===
किसी भी भाषा के लिए उसके मूल अक्षरों का ध्वनि स्पष्ट और उसके उच्चारण करने वाले के लिए कल्याणकारी होना चाहिए। यही बात संस्कृत के अक्षरों पर भी लागू होता है। तब आखिर शब्द बने कैसे? और उनका मानव शरीर पर क्या असर होता है? जब मैंने इसे जानने की कोशिश की तो जो जानकारी मुझे मिला वो मैं अब लिखने जा रहा हूँ।
मानव शरीर की उत्पत्ति सम्पूर्ण सृष्टि में अद्भुत और दुर्लभ है क्योंकि इसी योनि में मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा खुद का मित्र या खुद का शत्रु बन जाता है {श्रीमद्भगवतगीता, आत्मसंयमयोग, अध्याय ६ , श्लोक ५}। मन द्वारा धारण किया गया सृष्टि कल्याण का संकल्प पूर्ण हो पाता है। मानव शरीर में सात चक्रों का समावेश होता है। जब मनुष्य योग में स्थित हो कर अपने प्राण शक्तियों को उर्ध्वगामी कर लेता है उस दशा में वो सातो चक्रों से गुजरता हुआ ब्रह्मलीन विचरता है। मानव शरीर का आध्यात्मिक यात्रा इन्हीं चक्रों पर आधारित है। ध्वनि की उत्पत्ति इन चक्रों से ही होती है। सभी चक्र भिन्न-भिन्न धातुओं से बने हैं। जिन से ध्वनि का धातु रूप उत्पन्न होता है, स्वर कण्ठ से और व्याकरण मुख से निकलता है। मानव शरीर में ७२००० नाड़ियाँ इन्हीं चक्रों से जुड़ी हुई हैं जिन नाड़ियों द्वारा प्राणवायु का संचार पूर्ण शरीर में होता है। इन चक्रों द्वारा जब हवा के दबाव से ध्वनि का उच्चारण होता है तो उसी हवा द्वारा मस्तिष्क में बुद्घि और शरीर के भीतरी अंगों की उर्जा धाराएं खुलती हैं और मानव अपनी बुद्धि के उल्टे व सीधे भाग में उर्जा का बहाव बढ़ा पाता है।
इन्ही सातों चक्रों द्वारा मानव शरीर ५६ प्रकार की ध्वनियों का उच्चारण कर पाता है।
मूलधारा चक्र - व; श; ष; स; ल
स्वाधिष्ठान चक्र - ब, भ, म, थ, र, ल, व
मणिपुर चक्र - ड, ढ, ण, त, द, ध, न, प, य, फ, र
अनाहत चक्र - क, ख, ग, घ, ड़, च, छ, ज, झ, त्र, ट, ठ, य
विशुद्धि चक्र - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ज्ञ, लृ; ए, ऐ, ओ, अं; अः ह
आज्ञा चक्र - ह, क्ष, ॐ
सहस्रार चक्र - सभी दल के अक्षर
एकमात्र संस्कृत भाषा के शब्द ही इन सभी ध्वनियों का शुद्ध रूप से उच्चारण कर पाते हैं। मानव संस्कृत भाषा के उच्चारण से दूर होने के कारण भी रोगी हो गया है, क्योंकि अन्य भाषाओं में कटी हुई ध्वनियों का उच्चारण होता है जिसकि वजह से चक्र पूर्ण रूप से नहीं घूम पाते और प्राण वायु (उर्जा) का संचार शरीर के अंगो में नहीं हो पाता। इसी की वजह से शरीर के अंग ४० से ६० साल की आयु तक के समय में रोगों को धारण करते चले जाते हैं। इसी संस्कृत भाषा से दूर होने के कारण मानव की बुद्धि- उर्जा धाराएं गहराई तक नहीं खुल पाती जिस कि वजह से किसी भी विचार पर बुद्घी पूर्णरूप से नहीं सोच पाती। मानव के पास यही एकमात्र साधन ऐसा है जिससे सुषुम्ना नाड़ी में उर्जा के बहाव से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है। मानव शरीर की चक्र प्रणाली वायु तत्वों और उर्जा द्वारा संचालित होने के कारण वैज्ञानीक उपकरणों से देखी नहीं जा सकती है।


ध्वनी या लिपि की उत्पत्ति और चक्रों का रहस्य 
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किसी भी भाषा के लिए उसके मूल अक्षरों का ध्वनि स्पष्ट और उसके उच्चारण करने वाले के लिए कल्याणकारी होना चाहिए। यही बात संस्कृत के अक्षरों पर भी लागू होता है। तब आखिर शब्द बने कैसे? और उनका मानव शरीर पर क्या असर होता है? जब मैंने इसे जानने की कोशिश की तो जो जानकारी मुझे मिला वो मैं अब लिखने जा रहा हूँ। 

मानव शरीर की उत्पत्ति सम्पूर्ण सृष्टि में अद्भुत और दुर्लभ है क्योंकि इसी योनि में मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा खुद का मित्र या खुद का शत्रु बन जाता है {श्रीमद्भगवतगीता, आत्मसंयमयोग, अध्याय ६ , श्लोक ५}। मन द्वारा धारण किया गया सृष्टि कल्याण का संकल्प पूर्ण हो पाता है। मानव शरीर में सात चक्रों का समावेश होता है। जब मनुष्य योग में स्थित हो कर अपने प्राण शक्तियों को उर्ध्वगामी कर लेता है उस दशा में वो सातो चक्रों से गुजरता हुआ ब्रह्मलीन विचरता है। मानव शरीर का आध्यात्मिक यात्रा इन्हीं चक्रों पर आधारित है। ध्वनि की उत्पत्ति इन चक्रों से ही होती है। सभी चक्र भिन्न-भिन्न धातुओं से बने हैं। जिन से ध्वनि का धातु रूप उत्पन्न होता है, स्वर कण्ठ से और व्याकरण मुख से निकलता है। मानव शरीर में ७२००० नाड़ियाँ इन्हीं चक्रों से जुड़ी हुई हैं जिन नाड़ियों द्वारा प्राणवायु का संचार पूर्ण शरीर में होता है। इन चक्रों द्वारा जब हवा के दबाव से ध्वनि का उच्चारण होता है तो उसी हवा द्वारा मस्तिष्क में बुद्घि और शरीर के भीतरी अंगों की उर्जा धाराएं खुलती हैं और मानव अपनी बुद्धि के उल्टे व सीधे भाग में उर्जा का बहाव बढ़ा पाता है।
इन्ही सातों चक्रों द्वारा मानव शरीर ५६ प्रकार की ध्वनियों का उच्चारण कर पाता है। 

मूलधारा चक्र - व; श; ष; स; ल
स्वाधिष्ठान चक्र - ब, भ, म, थ, र, ल, व
मणिपुर चक्र - ड, ढ, ण, त, द, ध, न, प, य, फ, र
अनाहत चक्र - क, ख, ग, घ, ड़, च, छ, ज, झ, त्र, ट, ठ, य

विशुद्धि चक्र - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ज्ञ, लृ; ए, ऐ, ओ, अं; अः ह
आज्ञा चक्र - ह, क्ष, ॐ 
सहस्रार चक्र - सभी दल के अक्षर

एकमात्र संस्कृत भाषा के शब्द ही इन सभी ध्वनियों का शुद्ध रूप से उच्चारण कर पाते हैं। मानव संस्कृत भाषा के उच्चारण से दूर होने के कारण भी रोगी हो गया है, क्योंकि अन्य भाषाओं में कटी हुई ध्वनियों का उच्चारण होता है जिसकि वजह से चक्र पूर्ण रूप से नहीं घूम पाते और प्राण वायु (उर्जा) का संचार शरीर के अंगो में नहीं हो पाता। इसी की वजह से शरीर के अंग ४० से ६० साल की आयु तक के समय में रोगों को धारण करते चले जाते हैं। इसी संस्कृत भाषा से दूर होने के कारण मानव की बुद्धि- उर्जा धाराएं गहराई तक नहीं खुल पाती जिस कि वजह से किसी भी विचार पर बुद्घी पूर्णरूप से नहीं सोच पाती। मानव के पास यही एकमात्र साधन ऐसा है जिससे सुषुम्ना नाड़ी में उर्जा के बहाव से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है। मानव शरीर की चक्र प्रणाली वायु तत्वों और उर्जा द्वारा संचालित होने के कारण वैज्ञानीक उपकरणों से देखी नहीं जा सकती है।

Tuesday, July 29, 2014

अफगानिस्तान में मिला ५००० साल पुराना महाभारतकालीन विमान !

अभी तक हम धर्मग्रंथों में ही पढ़ते ही रहे हैं कि रामायणकाल और महाभारत काल में विमान होते थे। पुष्पक विमान के बारे में भी हम सबने पढ़ा है।...लेकिन हाल ही में एक सनसनीखेज जानकारी सामने आई है। इसके मुताबिक अफगानिस्तान में एक ५००० साल पुराना विमान मिला है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि यह महाभारतकालीन हो सकता है।

 
वायर्ड डॉट कॉम की एक रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि प्राचीन भारत के पांच हजार वर्ष पुराने एक विमान को हाल ही में अफ‍गानिस्तान की एक गुफा में पाया गया है। कहा जाता है कि यह विमान एक 'टाइम वेल' में फंसा हुआ है अथवा इसके कारण सुरक्षित बना हुआ है। यहां इस बात का उल्लेख करना समुचित होगा कि 'टाइम वेल' इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शॉकवेव्‍स से सुरक्षित क्षेत्र होता है और इस कारण से इस विमान के पास जाने की चेष्टा करने वाला कोई भी व्यक्ति इसके प्रभाव के कारण गायब या अदृश्य हो जाता है।
कहा जा रहा है कि यह विमान महाभारत काल का है और इसके आकार-प्रकार का विवरण महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में‍ किया गया है। इस कारण से इसे गुफा से निकालने की कोशिश करने वाले कई सील कमांडो गायब हो गए हैं या फिर मारे गए हैं। रशियन फॉरेन इंटेलिजेंस सर्विज (एसवीआर) का कहना है कि यह महाभारत कालीन विमान है और जब इसका इंजन शुरू होता है तो इससे बहुत सारा प्रकाश ‍निकलता है। इस एजेंसी ने २१ दिसंबर २०१० को इस आशय की रिपोर्ट अपनी सरकार को पेश की थी।
घातक हथियार भी लगे हैं इस विमान में..
रूसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस विमान में चार मजबूत पहिए लगे हुए हैं और यह प्रज्जवलन हथियारों से सुसज्जित है। इसके द्वारा अन्य घातक हथियारों का भी इस्तेमाल किया जाता है और जब इन्हें किसी लक्ष्य पर केन्द्रित कर प्रक्षेपित किया जाता है तो ये अपनी शक्ति के साथ लक्ष्य को भस्म कर देते हैं।
ऐसा माना जा रहा है कि यह प्रागेतिहासिक मिसाइलों से संबंधित विवरण है। अमेरिकी सेना के वैज्ञानिकों का भी कहना है कि जब सेना के कमांडो इसे निकालने का प्रयास कर रहे थे तभी इसका टाइम वेल सक्रिय हो गया और इसके सक्रिय होते ही आठ सील कमांडो गायब हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह टाइम वेल सर्पिलाकार में आकाशगंगा की तरह होता है और इसके सम्पर्क में आते ही सभी जीवित प्राणियों का अस्तित्व इस तरह समाप्त हो जाता है मानो कि वे मौके पर मौजूद ही नहीं रहे हों।
एसवीआर रिपोर्ट का कहना है कि यह क्षेत्र 5 अगस्त को पुन: एक बार सक्रिय हो गया था और इसके परिणामस्वरूप ४० सिपाही और प्रशिक्षित जर्मन शेफर्ड डॉग्स इसकी चपेट में आ गए थे। संस्कृत भाषा में विमान केवल उड़ने वाला वाहन ही नहीं होता है वरन इसके कई अर्थ हो सकते हैं, यह किसी मंदिर या महल के आकार में भी हो सकता है।
चीन को भी तलाश है भारत के प्राचीन ज्ञान की
ऐसा भी दावा किया जाता है कि कुछेक वर्ष पहले ही चीनियों ने ल्हासा, ति‍ब्बत में संस्कृत में लिखे कुछ दस्तावेजों का पता लगाया था और बाद में इन्हें ट्रांसलेशन के लिए चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में भेजा गया था।
यूनिवर्सिटी की डॉ. रूथ रैना ने हाल ही इस बारे में जानकारी दी थी कि ये दस्तावेज ऐसे निर्देश थे जो कि अंतरातारकीय अंतरिक्ष विमानों (इंटरस्टेलर स्पेसशिप्स) को बनाने से संबंधित थे।
हालांकि इन बातों में कुछ बातें अतरंजित भी हो सकती हैं कि अगर यह वास्तविकता के धरातल पर सही ठहरती हैं तो प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के बारे में ऐसी जानकारी सामने आ सकती है जो कि आज के जमाने में कल्पनातीत भी हो सकती है।

Friday, July 18, 2014



हनोई (वियतनाम) - वियतनाम सरकारने दावा किया है कि वहांके उत्खननमें श्री विष्णुकी लगभग ४ सहस्र वर्षपूर्वकी मूर्ति मिली  है । यह मूर्ति दक्षिण  वियतनामके मेकोंग नदीके त्रिभुज (नदीका समुद्रमें मिलनेवाला  प्रदेश) प्रदेशमें मिली है । यह मूर्ति पत्थरकी है तथा श्री विष्णुके मस्तकके स्वरूपमें है । कथित मूर्ति विश्वके  वैदिक संस्कृतिका सबसे प्राचीन अवशेष है । इससे अनुमान लगा सकते हैं कि वियतनाममें प्राचीनकालमें  वैष्णव संस्कृतिका अस्तित्व होगा । डॉ.ए.पी. जोशीने कहा कि इस घटनासे स्पष्ट होता है कि प्राचीनकालमें  भारतकी हिन्दू संस्कृति सर्वत्र फैली हुई थी ।


Tuesday, July 15, 2014

शरीर में छिपे सप्त चक्र
मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति
में जो चक्र स्थित होते
हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात
बताई गई है। इन'
चक्रों के विषय में अत्यंत
महत्वपूर्ण एवं गोपनीय
जानकारी यहां दी गई है। यह जानकारी
शास्त्रीय, प्रामाणिक
एवं तथ्यात्मक है-
(1) मूलाधार चक्र -
गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों
वाला 'आधार चक्र' है । आधार चक्र का
ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी
है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का
निवास है ।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र -
इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग
मूल में है । उसकी छ: पंखुरियाँ हैं ।
इसके जाग्रत होने पर क्रूरता,गर्व,
आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास
आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
(3) मणिपूर चक्र -
नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है
। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा,
ईष्र्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह,
आदि कषाय-कल्मष मन में लड़ जमाये
पड़े रहते हैं ।
(4) अनाहत चक्र -
हृदय स्थान में अनाहत चक्र है । यह
बारह पंखरियों वाला है । यह सोता
रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़ -फोड़,
कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक
अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने
पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र -
कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह
सरस्वती का स्थान है । यह सोलह
पंखुरियों वाला है। यहाँ सोलह
कलाएँ सोलह विभूतियाँ विद्यमान है
(6) आज्ञाचक्र -
भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ '?'
उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा,
सप्त स्वर आदि का निवास है । इस
आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी
शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।
(7) सहस्रार चक्र -
सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के
मध्य भाग में है । शरीर संरचना में
इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण
ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर
एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व
है । वहाँ से जैवीय विद्युत का
स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।
कुण्डलिनी जागरण: विधि और विज्ञान
कुंडलिनी जागरण का अर्थ है मनुष्य
को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत
करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में
सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति
उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में
जन्मजात पायी जाती है। यह शक्ति
बिना किसी भेदभाव के हर मनुष्य को
प्राप्त है। इसे जगाने के लिए
प्रयास या साधना
करनी पड़ती है। जिस प्रकार एक
नन्हें से बीज में वृक्ष बनने की
शक्ति या क्षमता होती है। ठीक इसी
प्रकार मनुष्य में महान बनने की,
सर्वसमर्थ बनने की एवं शक्तिशाली
बनने की क्षमता होती है। कुंडली
जागरण के लिए साधक को शारीरिक,
मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या
प्रयास पुरुषार्थ करना पड़ता है।
जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि
के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं
मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और
बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी
शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह
सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी
अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी
शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण
है। योग और अध्यात्म की भाषा में इस
कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की
हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों
में माना गया है। कुण्डलिनी की
शक्ति के मूल तक पहुंचने के मार्ग
में छ: फाटक है अथवा कह सकते हैं कि छ:
ताले लगे हुए है। यह फाटक या ताले
खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति केंद्रों
तक पहुंच सकता है। इन छ: अवरोधों को
आध्यात्मिक भाषा में षट्-चक्र कहते
हैं। ये चक्र क्रमश: इस प्रकार है:
मूलधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,
मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र,
विशुद्धाख्य चक्र, आज्ञाचक्र।
साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत
करते हुए। अंतिम आज्ञाचक्र तक
पहुंचता है। मूलाधार चक्र से
प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की
सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण
कहलाता है।
-----------------------------------------------
कुण्डलिनी के षटचक्र ओर उनका
वेधन
अखिल विश्व गायत्री परिवार
सांस्कृतिक धरोहर गायत्री
महाविद्या सावित्री कुण्डलिनी
एवं तंत्र कुण्डलिनी में षठ चक्र
और उनका भेदन
सुषुप्तिरत्र तृष्णा
स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥
(१) गुदा और लिंग के बीच चार
पंखुरियों वाला 'आधार चक्र' है ।
वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास
है ।
(२) इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग
मूल में है । उसकी छः पंखुरियाँ हैं
। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता,
गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा,
अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता
है ।
(३) नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र
है । यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो
तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय,
घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में लड़
जमाये पड़े रहते हैं

(४) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है ।
यह बारह पंखरियों वाला है । यह सोता
रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़,
कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक
अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने
पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(५) कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह
सरस्वती का स्थान है । यह सोलह
पंखुरियों वाला है । यहाँ सोलह
कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है

(६) भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ
'ॐ' उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा
स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है ।
इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह
सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।
***श्री हडसन ने अपनी पुस्तक 'साइन्स
आव सीयर-शिप' में अपना मत व्यक्त
किया है । प्रत्यक्ष शरीर में
चक्रों की उपस्थिति का परिचय तंतु
गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता
है । अन्तः दर्शियों का अनुभव
इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थिति
दिव्य शक्तियों का केन्द्र
संस्थान बताया है । ***
कुण्डलिनी के बारे में उनके
पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि वह एक
व्यापक चेतना शक्ति है । मनुष्य के
मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क
तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व
सत्ता के साथ जोड़ता है । कुण्डलिनी
जागरण से चक्र संस्थानों में
जागृति उत्पन्न होती है । उसके
फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और
भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान
का द्वार खुलता है । यही है वह
स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता
में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का
जागरण सम्भव हो सकता है ।
चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण,
कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है ।
स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य
अपने में नव शक्ति का संचार हुआ
अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती
प्रतीत होती है । श्रम में उत्साह
और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि
का आभास मिलता है । मणिपूर चक्र से
साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती
है । संकल्प दृढ़ होते हैं और
पराक्रम करने के हौसले उठते हैं ।
मनोविकार स्वयंमेव घटते हैं और
परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत
अधिक रस मिलने लगता है ।
अनाहत चक्र की महिमा हिन्दुओं से भी
अधिक ईसाई धर्म के योगी बताते हैं ।
हृदय स्थान पर गुलाब से फूल की
भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा
का प्रतीक 'आईचीन' कनक कमल मानते हैं
। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह
भाव संस्थान है । कलात्मक
उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल
संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है
। बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता
कहते हैं । आत्मीयता का विस्तार
सहानुभूति एवं उदार सेवा
सहाकारिता क तत्त्व इस अनाहत चक्र
से ही उद्भूत होते हैं
‍कण्ठ में विशुद्ध चक्र है । इसमें
बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग
पवित्रता के तत्त्व रहते हैं । दोष
व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा
और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से
उत्पन्न होती है । शरीरशास्त्र में
थाइराइड ग्रंथि और उससे स्रवित
होने वाले हार्मोन के
संतुलन-असंतुलन से उत्पन्न
लाभ-हानि की चर्चा की जाती है ।
अध्यात्मशास्त्र द्वारा
प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान
तो यहीं है, पर वह होता सूक्ष्म शरीर
में है । उसमें अतीन्द्रिय
क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं ।
लघु मस्तिष्क सिर के पिछले भाग में
है । अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी
स्थान पर मानी जाती हैं ।
मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित
विशुद्ध चक्र इस चित्त संस्थान को
प्रभावित करता है । तदनुसार चेतना
की अति महत्वपूर्ण परतों पर
नियंत्रण करने और विकसित एवं
परिष्कृत कर सकने सूत्र हाथ में आ
जाते हैं । नादयोग के माध्यम से
दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही
परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने
लगती हैं ।
सहस्रार की मस्तिष्क के मध्य भाग
में है । शरीर संरचना में इस स्थान
पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से
सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग
सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से
जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह
उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के
अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं ।
इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ
तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं ।
उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो
सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार
या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार'
शब्द प्रयोग में लाया जाता है ।
सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर
हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की
परिकल्पना का यही आधार है ।
--------------------------------मनुष्य शरीर स्थित
कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित
होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो
कहीं सात बताई गई है। इन चक्रों के
विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं
गोपनीय जानकारी यहां दी गई है। यह
जानकारी शास्त्रीय, प्रामाणिक एवं
तथ्यात्मक है-
(1) मूलाधार चक्र- गुदा और लिंग के
बीच चार पंखुरियों वाला 'आधार चक्र'
है । आधार चक्र का ही
एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है।
वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास
है ।
(2) स्वाधिष्ठान चक्र- इसके बाद
स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है ।
उसकी छ: पंखुरियाँ हैं । इसके
जाग्रत
होने पर क्रूरता,गर्व, आलस्य,
प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि
दुर्गणों का नाश होता है ।
(3)मणिपूर चक्र- नाभि में दस दल वाला
मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा
रहे तो तृष्णा, ईष्र्या, चुगली,
लज्जा, भय,
घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में
लड़ जमाये पड़े रहते हैं ।
(4) अनाहत चक्र- हृदय स्थान में अनाहत
चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है
। यह सोता रहे तो लिप्सा,
कपट, तोड़ -फोड़, कुतर्क, चिन्ता,
मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा
रहेगा । जागरण होने पर यह
सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(5) विशुद्धख्य चक्र- कण्ठ में
विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का
स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला
है।
यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभूतियाँ
विद्यमान है
(6) आज्ञाचक्र- भू्रमध्य में आज्ञा
चक्र है, यहाँ '?' उद्गीय, हूँ, फट, विषद,
स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का
निवास है । इस आज्ञा चक्र का
जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग
पड़ती हैं ।
(७)सहस्रार चक्र-सहस्रार की स्थिति
मस्तिष्क के मध्य भाग में है । शरीर
संरचना में इस स्थान पर अनेक
महत्वपूर्ण ग्रंथियों से
सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग
सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से
जैवीय विद्युत का
स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।

Saturday, July 12, 2014



क्या आप जानते हैं कि.... ईसाईयों द्वारा अपने ईश्वर के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द ""हमारे" हिन्दू धर्म से चोरी किया गया है....
और, GOD शब्द और कुछ नहीं... बल्कि, हमारे अराध्य त्रिदेव का ""अंग्रेजी एवं छोटा रूप"" है...!
दरअसल बात कुछ ऐसी है कि..... जब हमारा सनातन धर्म पूरे विश्व में विजय पताका फहरा रहा था...... और, हमारे यहाँ रेशमी वस्त्र बनाये एवं पहने जा रहे थे..... उस समय तक..... पश्चिमी और आज के आधुनिक कहे जाने वाले देशों के लोग....... जंगलों में नंग-धडंग रहा करते थे....... !
जब हमारे हिंदुस्तान के व्यापारियों ने ... व्यापार के सिलसिले में.... देशों की सीमाओं को लांघना शुरू किया ....... तब उन पश्चिमी लोगों को समाज की स्थापना और ईश्वर के बारे में पता चला....!
भारत के उन्नत समाज .... और, सर्वांगीण विकास को देख कर उनकी आँखें फटी रह गई....!
खोजबीन करने पर उन्हें ये मालूम चला कि..... भारत (हिन्दुओं) के इस उन्नत समाज और सर्वंगीन विकास का प्रमुख आधार उनका ""भगवान पर अटूट श्रद्धा और भक्ति"" है...!
ये राज की बात पता चलते ही .... पश्चिमी देशों के लोगों ने भी...... हमारे हिंदुस्तान के भगवान को आधार बना कर........ उन्होंने अपना एक नया ही भगवान खड़ा कर लिया (जिस प्रकार मुहम्मद ने इस्लाम को खड़ा किया).
इसके लिए उन्होंने ... जीजस अर्थात ...... ईशा मसीह की प्रेरणा ...... भगवान श्री कृष्ण से ली.......( क्योंकि भगवान राम की कॉपी करने पर उन्हें भी नया रावण और नए लंका का निर्माण करना पड़ जाता ... जो कि काफी दुश्कर कार्य होता)
शायद आपने कभी गौर नहीं किया है कि..... ईशा मसीह और भगवान कृष्ण में कितनी समानता है....!
1 . भगवान कृष्ण की ही तरह..... ईशा मसीह का भी....... जन्म रात में बताया गया है....!
2 . भगवान कृष्ण की ही तरह .... ईशा मसीह भी .......... भेड़ बकरियां चराया करते थे....!
3 . भगवान कृष्ण की ही तरह..... ईशा मसीह को भी...... दूसरी माँ ने पाला....!
4 . भगवान कृष्ण की ही तरह... ईशा मसीह के कथन को भी... बाईबल कहा गया...(भगवान कृष्ण के कथन को श्रीभगवत गीता कहा गया है)
5 . हमारे हिन्दू धर्म की ही तरह.... बाईबल में भी दुनिया में प्रलय ..... जलमग्न होकर होना.... बताया गया है...!
अब उन्होंने नया भगवान तो बना लिया ..... लेकिन उन्हें संबोधित करने का तरीका भी उन्हें नहीं आता था.....और, ईश्वर के लिए उतना लम्बा-चौड़ा परिचय लोगों के समझ से परे जाने लगा ..!
जिस कारण.... उन्होंने एक बार फिर.... हमारे हिन्दू धर्म की मुंह ताकना शुरू किया ..... और, यहाँ उन्हें उनका जबाब मिल गया..!
हमारे हिन्दू धर्म में तीन प्रमुख देवता हैं.....
१. रचयिता... अर्थात ....... ब्रह्मा ..!
२. पालनकर्ता .. अर्थात .. विष्णु ...! और ,
३. संहार कर्ता .. अर्थात ..... शिव...!
उन्होंने.... हमारी इस विचारधारा को ... पूरी तरह जस के तस कॉपी कर लिया....... और, उन्होंने अंग्रेजी में अपने ईश्वर को GOD बुलाना शुरू किया..!
GOD अर्थात....
G : Generator ..... (सृष्टि Generate करने वाला........अर्थात........ रचयिता )
O : Operator ...... ( सृष्टि को Operate करने वाला .... अर्थात ... पालनकर्ता )
D : Destroyer...... ( सृष्टि को destroy करने वाला ..... अर्थात... संहार कर्ता..)
सिर्फ इतना ही नहीं.... बल्कि, हमारे ""कृष्णनीति"' को वे ..... अपनी सभ्यता के हिसाब से ""क्रिस्चैनिटी"" ..... बुलाने लगे.... !
इन प्रमाणों से बात एक दम शीशे की तरह साफ है कि..... दुनिया में "हिन्दू सनातन धर्म" को छोड़ कर बाकी सारे धर्म या तो चोरी कर बनाये गए है..... या फिर... उनकी सिर्फ मान्यता है....!
हमारा हिन्दू सनातन धर्म ही ...... ""सभी धर्मों की जननी है"" और, ....... ""अनादि.... अनंत... निरंतर""..... है...!
जय महाकाल...!!!

Monday, July 7, 2014



सेक्यूलर और अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े लोग..... खुद को सर्वाधिक ज्ञानवान और बुद्धिमान साबित करते हुए..... अक्सर हम हिन्दुओं को ये समझाने का प्रयास करते हैं कि....
रामायण और महाभारत जैसी घटनाएं कभी हुई ही नहीं थी..... और, वे बस काल्पनिक महाकाव्य हैं...!
दरअसल... वे ऐसे कर के .... भगवान और कृष्ण के को काल्पनिक बताना चाहते हैं... और, साथ ही ये भी प्रमाणित करना चाहते हैं कि..... हम हिन्दू काल्पनिक दुनिया में जीते हैं...!
लेकिन.... हम हिन्दू भी हैं कि....
ऐसे सेक्यूलरों के मुंह पर तमाचा जड़ने के लिए..... कहीं न कहीं से ..... सबूत जुगाड़ कर ही लाते हैं....!
जिन्होंने थोड़ी भी महाभारत पढ़ी होगी उन्हें वीर बर्बरीक वाला प्रसंग जरूर याद होगा....!
उस प्रसंग में हुआ कुछ यूँ था कि.....
महाभारत का युद्घ आरंभ होने वाला था और भगवान श्री कृष्ण युद्घ में पाण्डवों के साथ थे....... जिससे यह निश्चित जान पड़ रहा था कि कौरव सेना भले ही अधिक शक्तिशाली है, लेकिन जीत पाण्डवों की ही होगी।
ऐसे समय में भीम का पौत्र और घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक ने..... अपनी माता को वचन दिया कि... युद्घ में जो पक्ष कमज़ोर होगा वह उनकी ओर से लड़ेगा !
इसके लिए, बर्बरीक ने महादेव को प्रसन्न करके उनसे तीन अजेय बाण प्राप्त किये थे।
परन्तु, भगवान श्री कृष्ण को जब बर्बरीक की योजना का पता चला तब वे ...... ब्राह्मण का वेष धारण करके बर्बरीक के मार्ग में आ गये।
श्री कृष्ण ने बर्बरीक को उत्तेजित करने हेतु उसका मजाक उड़ाया कि..... वह तीन वाण से भला क्या युद्घ लड़ेगा...?????
कृष्ण की बातों को सुनकर बर्बरीक ने कहा कि ......उसके पास अजेय बाण है और, वह एक बाण से ही पूरी शत्रु सेना का अंत कर सकता है ..तथा, सेना का अंत करने के बाद उसका बाण वापस अपने स्थान पर लौट आएगा।
इस पर श्री कृष्ण ने कहा कि..... हम जिस पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हैं... अगर, अपने बाण से उसके सभी पत्तों को छेद कर दो तो मैं मान जाउंगा कि.... तुम एक बाण से युद्घ का परिणाम बदल सकते हो।
इस पर बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार करके......भगवान का स्मरण किया और बाण चला दिया.।
जिससे, पेड़ पर लगे पत्तों के अलावा नीचे गिरे पत्तों में भी छेद हो गया....।
इसके बाद वो दिव्य बाण भगवान श्री कृष्ण के पैरों के चारों ओर घूमने लगा... क्योंकि, एक पत्ता भगवान ने अपने पैरों के नीचे दबाकर रखा था...।
भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि धर्मरक्षा के लिए इस युद्घ में विजय पाण्डवों की होनी चाहिए..... और, माता को दिये वचन के अनुसार अगर बर्बरीक कौरवों की ओर से लड़ेगा तो अधर्म की जीत हो जाएगी।
इसलिए, इस अनिष्ट को रोकने के लिए ब्राह्मण वेषधारी श्री कृष्ण ने बर्बरीक से दान की इच्छा प्रकट की....।
जब बर्बरीक ने दान देने का वचन दिया... तब श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उसका सिर मांग लिया... जिससे बर्बरीक समझ गया कि ऐसा दान मांगने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता है।
और, बर्बरीक ने ब्राह्मण से वास्तविक परिचय माँगा.....और, श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि वह कृष्ण हैं।
सच जानने के बाद भी बर्बरीक ने सिर देना स्वीकार कर लिया लेकिन, एक शर्त रखी कि, वह उनके विराट रूप को देखना चाहता है ....तथा, महाभारत युद्घ को शुरू से लेकर अंत तक देखने की इच्छा रखता है,,,,।
भगवान ने बर्बरीक की इच्छा पूरी करते हुए, सुदर्शन चक्र से बर्बरीक का सिर काटकर सिर पर अमृत का छिड़काव कर दिया और एक पहाड़ी के ऊंचे टीले पर रख दिया... जहाँ से बर्बरीक के सिर ने पूरा युद्घ देखा।
============
और, ये सारी घटना ........ आधुनिक वीर बरबरान नामक जगह पर हुई थी.... जो हरियाणा के हिसार जिले में हैं...!
अब ये .... जाहिर सी बात है कि .... इस जगह का नाम वीर बरबरान........ वीर बर्बरीक के नाम पर ही पड़ा है...!
आश्चर्य तो इस बात का है कि..... अपने महाभारत काल की गवाही देते हुए..... वो पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है..... जिसे वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण भगवान के कहने पर... अपने वाणों से छेदन किया था... और, आज भी इन पत्तो में छेद है । ( चित्र संलग्न)
साथ ही..... सबसे बड़ी बात तो ये है कि....... जब इस पेड़ के नए पत्ते भी निकलते है ......तो उनमे भी छेद होता है !
सिर्फ इतना ही नहीं.... बल्कि, इसके बीज से उत्पन्न नए पेड़ के भी पत्तों में छेद होता है...!


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Researcher of Yog-Tantra with the help of Mercury. Working since 1988 in this field.Have own library n a good collection of mysterious things. you can send me e-mail at alon291@yahoo.com Занимаюсь изучением Тантра,йоги с помощью Меркурий. В этой области работаю с 1988 года. За это время собрал внушительную библиотеку и коллекцию магических вещей. Всегда рад общению: alon291@yahoo.com